Delhi Election Analysis: दिल्ली चुनाव में बीजेपी की जीत और आम आदमी पार्टी की हार का संपूर्ण विश्लेषण, अब अब आगे क्या होगा AAP भविष्य!

Delhi Election Analysis: बीजेपी ने लगातार चौथी बार दिल्ली की कुर्सी पर बैठने का आम आदमी पार्टी का सपना पूरा नहीं होने दिया. बाकी 22 सीटें आम आदमी पार्टी (आप) को मिलीं थी इससे पहले साल 2015 में ‘आप’ ने 67 और 2020 में 62 सीटें जीती थीं.साल 1998 से 2013 तक यानी 15 साल तक दिल्ली की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस लगातार तीसरे विधानसभा चुनाव में भी कोई सीट नहीं जीत पाई है.दिल्ली में बीजेपी ने पिछले कुछ वर्षों से 34 से 38 फ़ीसदी का एक स्थिर वोट शेयर बनाए रखा था, लेकिन इस बार वो इसे बढ़ाकर 45.6 फ़ीसदी तक ले गई है.जबकि आम आम आदमी पार्टी का वोट शेयर 10 फ़ीसदी गिरकर 53.6 से 43.6 फ़ीसदी पर पहुंच गया है.वहीं कांग्रेस का वोट शेयर 2020 के 4.3 फ़ीसदी से बढ़ कर 6.3 फ़ीसदी पर पहुंच गया है.

दिल्ली चुनाव का नतीजा आ चुका है जिसमें भारतीय जनता पार्टी ने शानदार जीत दर्ज की है आम आदमी पार्टी का वोट शेयर इस चुनाव में काफी कम हुआ है अबकी बार आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री के दावेदार अरविंद केजरीवाल अपनी सीट तक नहीं बचा पाए हैं वहीं मनीष सिसोदिया भी अपनी सीट जीतने में नाकाम रहे हैं दिल्ली चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी के भविष्य को लेकर सवाल उठ रहे हैं आखिर क्या कारण रहे कि आम आदमी पार्टी को दिल्ली चुनाव में हर का मुंह देखना पड़ा है और भाजपा जनता के बीच अपनी पकड़ बनाने में कामयाब रह पाई है हमने दिल्ली चुनाव के नतीजे का गहनता से विश्लेषण किया है और भविष्य की राजनीति पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा इस बारे में भी हमने कई चुनावी एक्सपर्ट से राय ली है.

हिंदुत्व के पिच पर खेलने की कोशिश में आम आदमी पार्टी (आप) फिसल गई है.

27 साल बाद भाजपा सत्ता में वापसी कर रही है. अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, सौरभ भारद्वाज और सत्येंद्र जैन जैसे दिग्गजों को मुंह की खानी पड़ी है. कुल 70 विधानसभा सीटों में से 48 पर भाजपा और 22 पर आप को जीत मिली है. जिन 22 सीटों पर जीत मिली है, उनमें से 14 दलित-मुस्लिम बाहुल्य सीटें हैं. आप ने दलित समुदाय के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित कुल 12 सीटों में से आठ पर जीत दर्ज की है. सात मुस्लिम बाहुल्य सीटें हैं- बाबरपुर, बल्लीमारान, चांदनी चौक, मटिया महल, मुस्तफाबाद, ओखला और सीलमपुर. आप ने मुस्तफाबाद के अलावा शेष सभी सीटों पर जीत दर्ज की है.आप को सीटें भले ही दलित-मुस्लिम इलाकों से मिली हो लेकिन चुनाव के दौरान अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी का फोकस ख़ुद को भाजपा से अधिक हिंदू दिखाने का रहा था.

चुनाव परिणाम से ठीक एक महीने पहले आठ जनवरी को दिल्ली में आप ने धूमधाम से अपनी ‘सनातन सेवा समिति’ के पदाधिकारियों की घोषणा की थी. इस समिति का उद्देश्य सनातन धर्म के प्रति समर्पित पुजारियों और संतों को एक मंच प्रदान करना है.इस चुनाव में केजरीवाल की पहली घोषणा मंदिरों के पुजारियों और गुरुद्वारों के ग्रंथियों को हर महीने 18,000 रुपये देने की थी. जबकि दिल्ली में बौद्ध मठ, रविदास मंदिर, वाल्मीकि मंदिर और कबीर मंदिर भी हैं, जिससे बड़ी संख्या दलित जुड़े हुए हैं, लेकिन आप ने उनके संचालकों के लिए इस तरह की किसी योजना की घोषणा नहीं की गई. केजरीवाल जिस डॉ. आंबेडकर की बार-बार दुहाई देते रहते हैं, उन्होंने ख़ुद बौद्ध धर्म अपना लिया था.

चुनाव प्रचार के दौरान भी केजरीवाल ने खूब मंदिर-मंदिर गए, ख़ासकर हनुमान मंदिरों में, वह भाजपा की ‘राम भक्त’ वाली छवि के बरक्स अपनी ‘कट्टर हनुमान भक्त’ की छवि गढ़ना चाहते हैं. हालांकि, ऐसा करते हुए वह शायद भूल जाते हैं कि भाजपा की नींव में ‘राम मंदिर आंदोलन’ का पत्थर है, जबकि उन्होंने धर्म और राजनीति का घालमेल ताज़ा-ताज़ा शुरू किया है.

अपनी मूल विचारधारा से भटक गई आम आदमी पार्टी

आप के पिछले कुछ वर्षों का इतिहास देखें तो पार्टी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के लिए खड़ी नज़र नहीं आती है, भाजपा द्वारा फैलाए जा रहे संकीर्णतावाद रोकने के बजाए अपनी ओर और हवा देती है, जैसे- रोहिंग्या मुसलमानों और बांग्लादेशी मुसलमानों का मामला.
साल 2022 में आतिशी ने जहांगीरपुरी में हुई तोड़फोड़ के बाद शहर में भड़की सांप्रदायिक हिंसा को रोहिंग्या और बांग्लादेशी शरणार्थियों से जोड़ते हुए कहा था, ‘भाजपा नेताओं ने पूरे भारत में बांग्लादेशी और रोहिंग्या बस्तियां बसाई, ताकि उन्हें दंगों और हिंसा के लिए मोहरे के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके.’

आप सरकार ने ही दिल्ली के सरकारी स्कूलों से ‘बांग्लादेशी प्रवासियों’ के बच्चों को बाहर करने का फैसला किया था. दिल्ली में हुई बुलडोजर की कार्रवाई पर भी आप ने चुप्पी साध रखी थी. 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म किए जाने का भी आप ने स्वागत किया था.

केजरीवाल अयोध्या में उस स्थान पर सरकारी पैसे से लोगों को ‘तीर्थयात्रा’ करवा रहे थे, जहां बाबरी मस्जिद को तोड़कर राम मंदिर का निर्माण किया गया है. वह ख़ुद भी अपने परिवार के सदस्यों और सहयोगी भगवंत मान के साथ दर्शन के लिए राम मंदिर गए थे.

अयोध्या में जब राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठान का कार्यक्रम चल रहा था, तब अरविंद केजरीवाल ने सुंदरकांड और हनुमान चालीसा का बड़े पैमाने पर आयोजन कर दिल्ली को ‘राममय’ कर दिया था. जबकि जाहिर तौर पर अधूरे मंदिर को लेकर वह पूरा आयोजन भाजपा अपने राजनीतिक फायदे के लिए कर रही थी.

बीजेपी का कट्टर हिंदुतव् वर्सेस आपका सॉफ्ट हिंदुतव्

आप इस चुनाव ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ के सहारे भाजपा का मुकाबला करना चाह रही थी. लेकिन वह भूल रही थी कि जब उसने ‘सनातन सेवा समिति’ के पदाधिकारियों की घोषणा की थी, उससे कई महीने पहले भाजपा का मंदिर प्रकोष्ठ सक्रिय था, और दिल्ली के लगभग 80 प्रतिशत मंदिरों में हर मंगलवार हनुमान चालीसा करवा रहा था. भाजपा इस खेल में आप से हमेशा बहुत आगे रही है.
भाजपा का वैचारिक स्त्रोत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को माना जाता है. चुनाव के दौरान आप के प्रत्याशी संघ के अनुषांगिक संगठन के कार्यक्रम में जाते नजर आए थे. संघ का अनुषांगिक संगठन विश्व हिंदू परिषद दिसंबर से ही दिल्ली में बड़े पैमाने पर हथियार बांटने का कार्यक्रम आयोजित कर युवाओं को भाजपा की तरफ मोड़ने का काम कर रहा था. ऐसे में हिंदुत्व की पिच पर भाजपा से मुकाबला तो महंगा पड़नी ही था.

भाजपा देश की राजधानी को वापस जीतने में कामयाब हुई है. नरेंद्र मोदी की अगुवाई में पार्टी 27 साल बाद सत्ता में वापसी कर रही है.

2012 में ‘बदलाव की राजनीति’ का वादा कर मैदान में उतरने वाली आप की हार का कई तरह से विश्लेषण किया जा रहा है. दस साल के शासन की एंटी इनकम्बेंसी, वादे पूरे न करने का खामियाजा, उप-राज्यपाल द्वारा पैदा की गयी अड़चन, शीर्ष नेतृत्व के जेल जाने के बाद बिखरी आम आदमी पार्टी–कई वजह इस हार की हो सकती हैं.

इससे परे, एक वजह है ‘इंडिया गठबंधन’ का आपसी मतभेद, जिसमें आप और कांग्रेस दोनों शामिल हैं. आज सुबह (8 फरवरी) जब रुझानों में भाजपा आगे चल रही थी, जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने चुटकी लेते हुए रामायण धारावाहिक का एक क्लिप शेयर किया और लिखा, ‘और लड़ो एक दूसरे से.’

भाजपा को मिला विपक्ष की आपसी लड़ाई का फायदा?

दिल्ली विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ ही स्पष्ट हो गया था कि आप और कांग्रेस साथ मिलकर चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. इसके बाद इंडिया गठबंधन के कुछ अन्य दलों ने भी घोषणा कर दी कि वह किसके पाले में हैं. समाजवादी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने आप का समर्थन किया. सपा ने आप के लिए प्रचार भी किया.

चुनावी सरगर्मी जैसे-जैसे बढ़ी, आप और कांग्रेस के बीच जुबानी हमला तेज हुआ. चुनाव के दौरान कांग्रेस उन्हीं शब्दावलियों का का इस्तेमाल कर आप पर हमला कर रही थी, जिनका इस्तेमाल भाजपा केजरीवाल पर निशाना साधने के लिए कर रही थी, जैसे- शीशमहल.

चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने केजरीवाल पर निशाना साधते हु्ए कहा था, ‘केजरीवाल जी, स्वेटर पहनकर वैगन आर से आए और खंभे पर चढ़ गए, फिर खंभे से उतरे और सीधे शीशमहल में चले गए.’

राहुल ने केजरीवाल पर वंचित समाज की उपेक्षा का भी आरोप लगाया, ‘आप केजरीवाल जी से पूछें कि क्या वह पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण और जाति जनगणना चाहते हैं? जब मैं जाति जनगणना की बात करता हूं तो प्रधानमंत्री मोदी और केजरीवाल दोनों चुप्पी साध लेते हैं. केजरीवाल और प्रधानमंत्री मोदी में कोई अंतर नहीं है क्योंकि दोनों झूठे वादे करते हैं.’

इसके अलावा राहुल ने आप पर वंचितों को प्रतिनिधित्व न देने का भी आरोप लगाया था, ‘टीम केजरीवाल (दिल्ली चुनाव के लिए आप का पोस्टर) में नौ लोग हैं, लेकिन उसमें से कोई भी दलित, पिछड़ा या मुस्लिम समुदाय से नहीं है.’

जब राहुल गांधी के हमले तीखे होते गए, केजरीवाल ने जवाब देते हुए कहा, ‘लोग पूछ रहे हैं राहुल गांधी जी ‘राजमहल’ पर चुप क्यों है? आज राहुल जी ने दिल्ली में पूरा भाजपा वालों का भाषण दोहराया. जनता को बता दो कि बीजेपी और कांग्रेस में क्या समझौता हुआ है?’

कांग्रेस दिल्ली चुनाव को लेकर आत्मविश्वास से भरी नहीं थी, जैसा वह हरियाणा में दिख रही थी. ऐसे में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं था.

शराब घोटाले के आरोप में जेल जाने, हिंदुत्व की राजनीति में हाथ आजमाने, मुसलमानों के हित में खड़े होने से बचने की वजह से केजरीवाल की पार्टी को पहले ही नुकसान हो रहा था. कांग्रेस के हमले ने इस चोट को गहरा कर दिया.

कांग्रेस की राख पर खड़ी हुई थी आप

दिल्ली में भाजपा भले ही 1993 के बाद से सरकार न बना पाई हो, लेकिन पार्टी का वोट प्रतिशत कभी भी 30 प्रतिशत से कम नहीं रहा है. पिछले तीन चुनावों 2013, 2015 और 2020 की बात करें तो भाजपा को क्रमश: 33.07 प्रतिशत, 32.2 प्रतिशत और 38.51 प्रतिशत वोट मिले हैं. आप जब 70 में 67 सीट जीतती है, तब भी भाजपा 32.2 प्रतिशत वोट रोकने में कामयाब रहती है. यानी आप के उत्कर्ष के दौरान भी भाजपा के कोर वोट पर ज्यादा असर नहीं पड़ा था. आप कांग्रेस की राख पर खड़ी हुई थी. कांग्रेस को मिलने वाले वोटों का एक बड़ा हिस्सा लेकर आप विकसित हुई थी. कांग्रेस के खिलाफ हुए देशव्यापी आंदोलन ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से निकलकर राजनीति में आई आप को साल 2013 के विधानसभा चुनाव में 29.49 प्रतिशत वोट मिले थे, कांग्रेस का वोट प्रतिशत इससे थोड़ा कम 24.55 प्रतिशत था.लेकिन इसके बाद के चुनावों में कांग्रेस का वोट तेजी से कम हुआ. 2020 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 9.7 प्रतिशत वोट मिले और अगले चुनाव (2020) में केवल 4.26 प्रतिशत.

दूसरी तरफ आप का वोट प्रतिशत उतनी ही तेजी से बढ़ा 2015 में 54.3 प्रतिशत और 2020 में 53.57 प्रतिशत. 2025 के चुनाव में जब आप का वोट प्रतिशत कुछ कम होकर 43 प्रतिशत तक पहुंचा है तो कांग्रेस के वोट प्रतिशत में थोड़ी बढ़ोत्तरी (इस चुनाव में कांग्रेस को 6 प्रतिशत से थोड़ा अधिक वोट मिला है) हुई है. भाजपा को 45 प्रतिशत से थोड़ा ज्यादा वोट मिला है.

क्या आप और कांग्रेस मिलकर लड़ते तो परिणाम अलग आते?

दोनों पार्टियों के गठबंधन से चुनाव परिणाम पर पड़ने वाला प्रभाव आज भले ही अकादमिक प्रश्न लगे, लेकिन कुछ ऐसी सीटें ज़रूर थीं, जिस पर आप और कांग्रेस के मिलकर लड़ने से परिणाम बदल सकता था. जंगपुरा विधानसभा क्षेत्र से आप के मनीष सिसोदिया मात्र 675 वोट से हारे हैं और कांग्रेस उम्मीदवार फरहाद सूरी को 7350 वोट मिले हैं. ग्रेटर कैलाश से आप के सौरभ भारद्वाज 3188 वोट से हारे हैं, कांग्रेस के उम्मीदवार गर्वित सिंघवी को 6711 वोट मिले हैं. ऐसी कुल 12 सीट हैं जहां कांग्रेस के प्रत्याशी ने आप की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाया, जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिला.

इंडिया गठबंधन जो बड़े वायदों के साथ पिछले साल लोकसभा चुनाव के दौरान साथ आया था, और जिसने भाजपा को बहुमत से बहुत पीछे रोक दिया था, वह हरियाणा और महाराष्ट्र के बाद इस बार दिल्ली में विफल रहा.

क्या फिर खड़ी हो पाएगी आम आदमी पार्टी जानिए

2013 में आम आदमी पार्टी की जीत और सरकार गठन के बाद एनडीटीवी पर एक चर्चा के लिए एक मंत्री को बुलाया गया. चर्चा का समय होने को था, लेकिन मंत्री का पता नहीं था. जब उन्हें फोन किया गया तो उन्होंने कहा कि वे कब से चैनल के दफ़्तर के नीचे खड़े हैं. सब हैरान हुए. एक आदमी नीचे गया. उसने देखा कि एक मासूम सा युवक चहलकदमी कर रहा है. वह कहीं से मंत्री या नेता नहीं लग रहा था. यह सौरभ भारद्वाज थे. लगभग यही कहानी उसी आसपास राखी बिड़ला के साथ भी घटी जिन्हें देखकर हमारे दफ़्तर में सब लोग हैरान थे कि यह तो मंत्री लगती ही नहीं.

तब हमारी तरह के बहुत सारे लोग यह महसूस कर रहे थे कि अपने सारे भटकावों और टकरावों के बीच और बावजूद यह‌ नई पार्टी एक नई तरह की राजनीति करने की कोशिश कर रही है. किसी धूमकेतु की तरह उभरी इस पार्टी के नेताओं में नेताओं वाला गुमान नहीं है, शक्ति प्रदर्शन की अभीप्सा नहीं है और अपने वैचारिक कच्चेपन के बावजूद कुछ नया करने और समझने की कोशिश है.

हालांकि, तब तक भी पूत के पांव पालने में दिखने लगे थे- पार्टी योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण जैसे वैचारिक सहयोगियों और मार्गदर्शन की क्षमता रखने वाले साथियों से कुछ अशोभनीय ढंग से पीछा छुड़ा चुकी थी. फिर भी अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे नेता तब तक ऐसे लोगों की तलाश में थे जो पैसे या प्रलोभन से दूर लोगों के बीच सचमुच काम करते हों. उनके साथ देश भर से वे परिवर्तनकामी संस्थाएं भी जुड़ रही थीं जो किसी राजनीतिक पहल में भरोसा न कर पाने की वजह से तब तक स्वैच्छिक संगठनों की तरह अपने-अपने क्षेत्रों में काम कर रही थीं. तब तक केजरीवाल ऐसे विद्युत केंद्र लगते थे जिनको छूने भर से झटका लग सकता है.लेकिन यह नई बिजली चुनावी सफलता के बाद राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के नए तारों पर दौड़ती नज़र आई. राजनीतिक परिवर्तन के लिए जन संगठन का अपना आज़माया हुआ नुस्खा छोड़ पार्टी सरल रास्तों की तलाश में जुट गई और इस व्यावहारिक समझ की शिकार होती चली गई कि चुनाव लड़ने के लिए बड़ा पैसा चाहिए. दिल्ली के बजट में विज्ञापनों के लिए दी जाने वाली राशि बढ़ती चली गई और जो काम पहले कार्यकर्ता अपनी इच्छा और लगन से करते थे, वह एक सरकारी महकमे के ज़रिए विज्ञापन एजेंसियों द्वारा किया जाने लगा.

ग़रीबों की राजनीति करने वाली पार्टी किसी ठोस विचार के अभाव में रेवड़ी बांटने वाली पार्टी बन गई

क्षरण की बिल्कुल प्रारंभिक शुरुआत यहीं से हुई. ग़रीबों की राजनीति करने वाली पार्टी किसी ठोस वैचारिकी के अभाव में रेवड़ी बांटने वाली पार्टी बन गई. फिर भाजपा के हिंदुत्व के जवाब में उसने भी हिंदूवादी चोला पहना और बुजुर्गो को तीर्थ यात्रा कराने से लेकर पंडे-पुरोहितों का मासिक वेतन बढ़ाने तक लगातार तरह-तरह की घोषणाएं करती रही. भाजपा के घातक और घृणा-आधारित हिंदुत्व के आगे नुक़सानरहित लगने वाले इस हिंदुत्व के चिंताजनक पहलू तब समझ में आए जब उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों में केजरीवाल का लगभग मुस्लिम विरोधी चेहरा दिखने लगा.

इसके बाद शराब घोटाले के नाम पर भ्रष्टाचार के आरोप आए और फिर मुख्यमंत्री भवन के आलीशान निर्माण की सच्चाई सामने आई. यह सादगी भरी और साफ़-सुथरी राजनीति के नाम पर बनाई गई छवि पर आख़िरी चोट थी. इसी दौरान मोहल्ला क्लीनिक और सरकारी स्कूलों के काम के लिए मिलने वाला ग़रीबों का समर्थन भी सिकुड़ता चला गया. इसमें संदेह नहीं कि इन सबके बीच केंद्र सरकार की एजेंसियों ने राजनीतिक दबाव में आम आदमी पार्टी के नेताओं को जेल में डाला, लेकिन इसकी भी जो सहानुभूति मिलनी चाहिए थी, वह केजरीवाल और सिसोदिया हासिल नहीं कर सके. क्योंकि जो साख उन्होंने कभी कमाई थी, वह बहुत कम समय में गवां दी. इन सबके बीच केजरीवाल के ऊल-जलूल आरोपों का सिलसिला तब चरम पर पहुंच गया जब उन्होंने हरियाणा सरकार पर दिल्ली के पानी में ज़हर मिलाने का आरोप लगाया और इसकी तुलना हिरोशिमा-नागासाकी पर हुए नाभिकीय हमले और यहूदियों के ख़िलाफ़ हिटलर की कार्रवाई से कर डाली.

भाजपा ने इस बार चुनावों में स्थानीय मुद्दों को उठाया

भाजपा के खुर्राट नेताओं और उनकी विराट चुनाव मशीनरी के लिए इतना भर काफ़ी था. यह बात बहुत मासूमियत से कहीं जा रही है कि इस बार भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति नहीं की और चुनावों में स्थानीय मुद्दों को उठाया जिसका उसे लाभ मिला. लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा को अब ध्रुवीकरण करने की ज़रूरत नहीं है, उसकी उपस्थिति ही ध्रुवीकरण का प्रतीक है- बंटोगे तो कटोगे, एक रहोगे तो सेफ़ रहोगे और अस्सी बनाम बीस जैसे नारे ही अब उसे परिभाषित करते हैं. फिर उसने रेवड़ी बांटने की वही राजनीति शुरू कर दी जो ‘आप’ की यूएसपी थी- तो लोगों ने मोदी की गारंटी को केजरीवाल की गारंटी से वज़नी माना- आख़िर इस गारंटी में डबल इंजन का भ्रम भी शामिल था. यह सच है कि केजरीवाल की टीम को दिल्ली के उपराज्यपालों ने बहुत सारे काम करने नहीं दिए. अनावश्यक अड़ंगे और हस्तक्षेप ही‌ नहीं, कनिष्ठ अधिकारियों से उन्हें लगभग अपमानित कराने का काम भी किया. क्या यह कल्पना की जा सकती है कि योगी या मोदी कोई घोषणा करें और उनका विभाग अख़बार में विज्ञापन देकर उन्हें झूठा बता दे? आतिशी सरकार की घोषणाओं पर यह हुआ. कुंभ के हादसे का सच भी अब तक सामने नहीं आ पाया है. जिन तीस लोगों की मौत सरकार मान रही है, उनके नामों की सूची तक सार्वजनिक नहीं की गई है जबकि उनके लिए मुआवजे़ का एलान किया जा चुका है. जाहिर है, अपने आख़िरी दिनों में आप सरकार बिल्कुल अशक्त और अक्षम जान पड़ती थी जिसका भी उसे ख़मियाज़ा भुगतना पड़ा.

आप अपनी वजह से ख़ुद हारी, केजरीवाल केजरीवाल नहीं रह गए और आप आप नहीं रह गई‌

जो लोग कांग्रेस को मिले वोट और कई सीटों पर हार-जीत का अंतर दिखा कर बता रहे हैं कि कांग्रेस की वजह से आप हारी है, वे आधा सच देख और बता रहे हैं. पूरा सच तो यह है कि आप अपनी वजह से हारी है वरना बीते दो चुनावों में उसे न कांग्रेस की दया की ज़रूरत पड़ी थी और न ही डबल इंजन सरकार के प्रचार से फ़र्क पड़ा था. फ़र्क इसलिए पड़ा कि केजरीवाल केजरीवाल नहीं रह गए है  और आप आप नहीं रह गई‌ है.

सच तो यह है कि यह एक पार्टी की नहीं, बहुत बड़े सपने की हार है. विकल्प की राजनीति के एक प्रयोग की भी हार है. लेकिन क्या यह अंतिम हार है? याद रहे राजनीति में कुछ भी अंतिम नहीं होता. पार्टियां अपनी राख से खड़ी होती हैं. कांग्रेस कई बार अपनी मौत की घोषणा को पराजित कर उठ खड़ी हुई है. भाजपा भी दो सीटों तक सिमट कर तीन सौ सीटों के पार भी गई. फिर आप तो बिल्कुल युवा पार्टी है जिसकी एक राज्य में सरकार भी है.लेकिन आम आदमी पार्टी महज एक और राजनीतिक दल की तरह- भाजपा या कांग्रेस की बी टीम की तरह- खड़ी होना चाहेगी तो उसके होने का मतलब नहीं बचेगा. उसे अपनी उन जड़ों तक लौटना होगा जहां से उसे प्रारंभिक पोषण मिला था. हालांकि, यहां भी एक मुश्किल है. जिस अण्णा आंदोलन की कोख से यह पार्टी निकली थी, उसमें एक मध्यमवर्गीय अगड़ावाद था जिसे भ्रष्टाचार विरोध या आरक्षण विरोध लुभाता था. इसलिए भी उस आंदोलन से पैदा हुई ऊर्जा अगर दिल्ली में आम आदमी पार्टी के काम आई तो दूसरे राज्यों में उसने भाजपा को शक्ति दी.

लेकिन अपने जन्म के बाद आम आदमी पार्टी ने समाजवादी विश्वासों की ओर झुकने के संकेत दिए थे, जिससे आकर्षित होकर बहुत सारे लोग उससे जुड़े थे. उन लोगों को नए सिरे से जोड़ना आसान नहीं, लेकिन अगर आप अपने आंदोलन को नए सिरे से धार दे और उसकी दिशा दुरुस्त करे तो उसकी वापसी असंभव नहीं. फिलहाल यह दिख रहा है कि उसके प्रति सरकारी एजेंसियां हमलावर हो सकती हैं. लेकिन जेलें भी वह जगह होती हैं जहां से बदलाव के आंदोलन चलाए जाते हैं. इस देश की आज़ादी की लड़ाई जेलों से ही लड़ी गई है, माफीवीरों के पराक्रम से नहीं. देखना है, केजरीवाल और उनके साथी अपनी राख से उठ खड़े होने का जज़्बा दिखाते हैं या नहीं. जो लोग यह भविष्यवाणी कर रहे हैं कि अब आम आदमी पार्टी नहीं भर पाएगी उन्हें दिल्ली का वोट परसेंटेज देखना चाहिए बीजेपी और आम आदमी पार्टी के वोट परसेंटेज में बेहद मामूली साथ 2% का अंतर है अब अगर दिल्ली पर बीजेपी को लंबे समय तक काबीज रहना है तो उन्हें स्थानीय मुद्दों पर काम करना होगा और आम आदमी पार्टी को अगर दिल्ली में सत्ता वापसी करनी है तो उन्हें लोगों के स्थानीय मुद्दों को लेकर ही आवाज उठानी होगी.

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