Dollar vs Indian Rupee: भारत में GDP में गिरावट के कारण पिछले दिनों भारतीय रुपया 87.49 रुपये प्रति डॉलर के नए निचले स्तर पर पहुंच गया है यह अब तक की सबसे बड़ी गिरावट है वित्त वर्ष 2025 की दूसरी तिमाही यानी जुलाई-सितंबर के दौरान देश की जीडपी 18 महीने के निचले स्तर 5.4 फीसदी की ग्रोथ से बढ़ चुकी है जबकि अनुमान 6 फीसदी से ज्यादा का लगाया जा रहा था। ऐसे में डॉलर के मुकाबले रुपये में रिकॉर्ड गिरावट देखी जा रही है। आइये जानते है इसके पीछे के क्या कारण रहे है।
पिछले दिनों भारतीय रुपया अब तक के अपने रिकॉर्ड सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया था। 5 फरवरी 2025 को डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 87.7425 के रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गया था जो सोमवार को भी पहले से ही 87.7050 के अपने पिछले सर्वकालिक रिकॉर्ड निचले स्तर पर था। हालांकि सिर्फ भारतीय ही नहीं अन्य एशियाई देश जैसे चीनी युआन भी कमजोर चल रहा था। यह एक साल में अपने सबसे निचले स्तर पर ट्रेंड कर रहा था। सबसे बड़ी करन्सी यूरो में भी कमजोरी के कारण डॉलर इंडेक्स 106.50 पर था। डॉलर की मुकाबले अगर कोई करन्सी कमजोर पड़ती है तो इसका सीधा अर्थ है उसे देश की जीडीपी भी डाउन जाती है.कुछ हफ्तों से लगातार गिरते हुए भारतीय रुपये ने बुधवार को अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 87.4975 के रिकॉर्ड निचले स्तर को छू लिया. सुबह के कारोबार में रुपया 87.1263 पर खुला, जो पिछले दिन के बंद भाव 87.0762 से 5 पैसे कम था. फॉरेन करेंसी ट्रेडर्स का कहना है कि ग्लोबल ट्रेड वार और अमेरिका-चीन के बीच टैरिफ को लेकर चल रही तनातनी के कारण रुपया दबाव में है. हालांकि, भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की ओर से किसी भी हस्तक्षेप से रुपये को सहारा मिल सकता है.
एसबीआई की रिपोर्ट में दे दी गई थी चेतावनी
पिछले दिनों नवंबर में एसबीआई की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें रुपए के डाउन जाने की चेतावनी दे दी गई थी. इस रिपोर्ट में अमेरिका में ट्रंप शासन की वापसी को लेकर दुनिया पर पड़ने वाले असर के बारे में बताया गया था की ट्रंप का शासन कैसे पूरी दुनिया पर प्रभाव डालेगा. रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया था कि ट्रंप के सत्ता में वापस आने से रुपया 8 से लेकर 10 फ़ीसदी तक गिर सकता है. अगर ऐसा हुआ तो रुपया ऐतिहासिक रूप से अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच जाएगा. ट्रंप के पहले कार्यकाल में भी रुपया 10 फ़ीसदी तक डाउन चल गया था और अब फिर 8 से 10 फ़ीसदी की गिरावट की आशंका जताई गई है.
और क्या कहती है एसबीआई की चौंकाने वाली रिपोर्ट
एसबीआई की रिपोर्ट में बताया गया है कि अमेरिका में ओबामा के शासन के दौरान 2012 से 2016 के बीच रुपया 22 फ़ीसदी तक डाउन चल गया था. उसके बाद जब ट्रंप अमेरिका के प्रधानमंत्री बने तो रुपए में 11 फीस दी की गिरावट हुई उसके बाद बिडेन के शासन में अमेरिकन डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 14.5 फ़ीसदी की गिरावट हुई. वहीं अब अनुमान लगाया जा रहा है कि अब जब दोबारा से ट्रंप सत्ता में वापसी कर गए हैं तो 8 से 10 फ़ीसदी तक रुपया डाउन रह सकता है वर्तमान हालातो को देखते हुए यह भारतीय रुपए की सबसे बड़ी ऐतिहासिक गिरावट होगी. जोए बिडेन के शासन के दौरान रुपए की औसत कीमत डॉलर के मुकाबले 79.5 रही थी जबकि वर्तमान में डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 84 रुपए पर ट्रेंड कर रहा है. और ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में यह 87 से लेकर 92 रुपए तक पहुंच सकता है.
आखिर क्यों गिरती है डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत
डॉलर के मुकाबले जब किसी भी करेन्सी की कीमत घटती है. तो उसे मुद्रा का गिरना कहा जाता है ऐसा विभिन्न कारणों से होता है.इसे ‘करेंसी डेप्रिसिएशन’ कहा जाता है. आख़िर रुपये की कीमत कैसे घटती या बढ़ती है ये पुरा प्रोसेस अंतरराष्ट्रीय कारोबार से जुड़ा हुआ है. इसमें होता ये है कि हर देश के पास विदेशी मुद्रा का अपना भंडार होता है. सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था होने के कारण दुनियाभर में अमेरिकी डॉलर का एकतरफा राज है, इसलिए किसी भी देश के विदेशी मुद्रा भंडार में अमेरिकी डॉलर ज्यादा होता है और दुनिया में 85 फीसदी कारोबार डॉलर से ही होता है और तेल भी डॉलर से ही खरीदा जाता है लगभग शरीफ सभी प्रकार का अंतरराष्ट्रीय व्यापार डॉलर से ही संपन्न होता है. डॉलर की तुलना में रुपये को मजबूत बनाए रखने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर को रखना बहुत जरूरी होता है. और आरबीआई के मुताबिक, 1 नवंबर 2024 तक भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 589.84 अरब डॉलर था. अब इसे ऐसे समझा जाए की भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में उतना डॉलर है, जितना अमेरिका के भंडार में रुपया है, तो रुपये की कीमत स्थिर रहेगी और इसमें अगर डॉलर कम हुआ तो रुपया कमजोर हो जायेगा और डॉलर ज्यादा हुआ तो रुपया मजबूत हो जायेगा.
डॉलर vs रुपए के पूरे प्रक्रिया को समझिए
माननीय भी $1 की कीमत 84 रुपए है और अमेरिका के पास 84000 हैं तो भारत के पास 1 हजार डॉलर है. इस हिसाब से दोनों देशों के पास बराबर विदेशी मुद्रा भंडार है. ऐसे में अगर भारत को कोई ऐसी चीज खरीदनी है जिसकी कीमत 8400 है तो भारत को उसके लिए $100 चुकाने होंगे. तो अब भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार में $900 बच गए. अब भारत की स्थिति कमजोर हो गई और भारतीय रुपया भी कमजोर हो जाएगा. अगर भारत को संतुलन बनाना है तो भारत को अमेरिका को भी $100 की चीज बेचनी पड़ेगी तब यह प्रक्रिया बराबर हो जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हो पता भारत चीज खरीदना ज्यादा है और बेचता बहुत ही काम है इसलिए रुपए के मुकाबले डॉलर अधिक ताकतवर रहता है. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में भारत का ट्रेंड हमेशा नेगेटिव रहता है भारत हमेशा खरीदारी ज्यादा करता है जबकि बेचता बहुत कम है.
अगर हम 2023-24 की बात करे तो भारत का ट्रेड डेफेसिट या व्यापार घाटा लगभग 20 लाख करोड़ रुपये था. रुपया और न गिरे, इसके लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया अपने विदेशी मुद्रा भंडार से और विदेश से डॉलर खरीदकर बाजार में उसकी मांग पूरी करने का प्रयास करता है.2025 की शुरुआत से अब तक रुपया 1.5 फीसदी से अधिक गिर चुका है. लेकिन यह गिरावट सिर्फ आंकड़ों की बात नहीं है, बल्कि इसका सीधा असर आपकी जेब पर पड़ने वाला है. आइए समझते हैं कि रुपये की यह गिरावट आपके लिए क्या मायने रखती है.
पूरे इतिहास में कभी मजबूत भी रहा है भारतीय रुपया
ऐसा माना जाता है कि जब भारत 1947 में आजाद हुआ था तब डॉलर और भारतीय रुपए की कीमत बराबर थी. लेकिन पड़ताल करने पर पाया कि यह पूरी तरह से झूठा दावा है और फेक न्यूज़ है. ऐसा बिल्कुल नहीं था भारत की आजादी के समय $1 की कीमत उसे समय 4.75 रुपए थी. उसे समय 1947 से लेकर 1965 तक डॉलर और रुपए की कीमतों में कोई खास बदलाव नहीं हुआ परंतु सन 1966 के बाद रुपए की कीमत डॉलर के मुकाबले में डाउन होने लगी. 1975 में डॉलर की कीमत ₹8 हो गई और 1985 में यह ₹12 पहुंच गई. 1991 के समय रुपया एक दम तेजी से गिरा और 21वीं साड़ी की शुरुआत होते ही डॉलर के मुकाबले रुपया ₹45 पर पहुंच गया. उसके बाद 2003 2004 में भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले ढाई रुपए मजबूत हुआ. उसके बाद यूपीए के शासन के दौरान 2007 और 2010 में भारतीय रुपए में तीन और चार रुपए की बढ़ोतरी हुई. उसके बाद से भारतीय रुपए में कोई खास सुधार नहीं हो पाया है कभी होता है तो मामले पास 10 पैसे ऊपर या नीचे होता है और रुपए की कीमत लगातार गिरती जा रही है. अब फ़िर से अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं. वो 2025 की 20 जनवरी को राष्ट्रपति पद की शपथ लेने जा रहे है. इसी के साथ ट्रंप का दूसरा कार्यकाल शुरू हो जाएगा और डोलैंड ट्रंप का अमेरिका का राष्ट्रपति बनना भारत के लिहाज से अच्छा माना जा रहा है. लेकिन ट्रंप 2.0 में भारतीय रुपया कमजोर हो सकता है. और यह भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए सोचने वाली बात है.बुधवार को रुपया सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली एशियाई मुद्राओं में से एक था, जिसमें दिन के दौरान 0.40 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई। दक्षिण कोरियाई वोन, फिलीपींस पेसो और मलेशियाई रिंगित में भी 0.5 फीसदी की गिरावट आई। बुधवार को डॉलर सूचकांक भी 0.4 फीसदी गिरकर 107.80 पर पहुंच गया था। यह छह प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले डॉलर की ताकत को मापता है।बाजार भागीदारों ने कहा कि अगर शुक्रवार को दरों में कटौती की घोषणा की जाती है तो डॉलर के मुकाबले रुपया 88 पर पहुंच सकता है। सरकारी बैंक के डीलर ने कहा, ‘रुपया आज करीब 87.50 के स्तर को छू गया था। अब 88 रुपया प्रति डॉलर का स्तर भी दूर नहीं है। अगर शुक्रवार को दरों में कटौती की जाती है तो ऐसा संभव भी हो जाएगा।’
आप पर क्या असर पड़ेगा?
रुपये की कमजोरी का सीधा असर आम आदमी की जिंदगी पर पड़ता है. भारत कच्चे तेल, इलेक्ट्रॉनिक्स और मशीनरी जैसी चीजों के लिए आयात पर बहुत अधिक निर्भर है. रुपया गिरने से इन आयातित वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं, जिससे उत्पादों और सेवाओं के दाम भी ऊपर जा सकते हैं. इसका मतलब है कि आपको रोजमर्रा की चीजों के लिए ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ सकते हैं.महंगाई भी बढ़ने की आशंका है. जब आयात महंगा होता है, तो व्यापारी इसका बोझ उपभोक्ताओं पर डाल देते हैं. इससे आपकी खरीदारी की क्षमता कम हो सकती है और घर का बजट बिगड़ सकता है.अगर आप विदेश जाने की योजना बना रहे हैं या फिर विदेश में पढ़ाई करने का सपना देख रहे हैं, तो रुपये की गिरावट आपके लिए और भी महंगी साबित हो सकती है. ट्यूशन फीस, रहने का खर्च और यात्रा लागत सब कुछ बढ़ जाएगा, जिससे विदेशी अनुभव और भी महंगा हो सकता है हालांकि, इस गिरावट का एक पॉजिटिव पहलू भी है. एक्सपोर्ट करने वालों को इससे फायदा हो सकता है. भारत के आईटी और फार्मा सेक्टर की आय का एक बड़ा हिस्सा निर्यात से आता है. रुपया कमजोर होने से उनके उत्पाद वैश्विक बाजार में सस्ते हो जाते हैं, जिससे उनकी मांग बढ़ सकती है.
क्या आरबीआई कर सकता है ब्याज दरों में कटौती जानिए
अब इस बात को लेकर भी चर्चा चल रही है अगर डॉलर के मुकाबले रुपया डाउन जाता है तो क्या आरबीआई अपनी ब्याज दरों में कटौती भी कर सकता है आरबीआई लगातार मुद्रा के स्तर को बनाए रखने के लिए काम करता रहता है. ऐसे में सभी की निगाहें आरबीआई पर टिक गई है क्या आरबीआई ब्याज दरों में कटौती करने जा रहा है.रुपये में गिरावट की सीमा मोटे तौर पर एशियाई देशों के अनुरूप है परंतु बैंकरों और कॉरपोरेट्स के लिए यह आश्चर्य की बात है.रिपोर्ट्स के मुताबिक, आरबीआई ने बुधवार को रुपये को सहारा देने के लिए हस्तक्षेप किया. ट्रेडर ने बताया कि सरकारी बैंकों ने 87.24 से 87.26 के स्तर पर डॉलर की सप्लाई की अथवा बेचा, जो संभवत: आरबीआई की ओर से था. इससे रुपये की गिरावट को रोकने में मदद मिली है.आरबीआई के शुक्रवार को होने वाली पॉलिसी मीटिंग में ब्याज दरों में कटौती की उम्मीदों के साथ-साथ आयातकों की डॉलर मांग ने भी रुपये पर दबाव डाला है. इस बीच, डॉलर इंडेक्स 0.2% गिरकर 107.8 पर आ गया, जबकि एशिया की ज्यादातर करेंसीज़ मजबूत रहीं है.
रुपया क्यों गिर रहा है?
हमारी मीडिया टीम ने नीति आयोग के सदस्य अरविंद विरमानी के हवाले से लिखा है की रुपये की यह गिरावट अमेरिकी डॉलर के मजबूत होने के कारण है. उन्होंने कहा कि वैश्विक अनिश्चितता के इस दौर में भारत को रुपये-युआन की दर पर भी ध्यान देना चाहिए. विरमानी ने पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि आरबीआई की नीति किसी विशेष विनिमय दर को लक्षित करने की नहीं है, बल्कि वह बाजार में अत्यधिक उतार-चढ़ाव को रोकने के लिए हस्तक्षेप करती है.
विरमानी ने कहा है की जब हम रुपये-डॉलर की दर की बात करते हैं, तो इसमें दो तत्व होते हैं. पहला, अमेरिकी डॉलर का मजबूत होना… और जो कुछ भी आप देख रहे हैं, वह अमेरिकी डॉलर की मजबूती के कारण है. यह हमारे नियंत्रण में नहीं हैऔर न ही हमारे नीति निर्माताओं को इसकी चिंता करनी चाहिए.”
दूसरा तत्व, विरमानी के अनुसार, सूचकांक के मुकाबले रुपये का डी-वेल्यूएशन है. इसे मापने का एक तरीका यह है कि इसकी तुलना अन्य देशों के साथ की जाए, क्योंकि रुपये की सामान्य मजबूती का असर सभी पर पड़ता है. उन्होंने कहा, “हाल ही में किसी ने सुझाव दिया था कि हमें रुपये-युआन की दर पर करीब से नजर डालनी चाहिए. यह एक अच्छा सुझाव है. इस अनिश्चितता के दौर में हमें अपने प्रतिस्पर्धियों को भी ध्यान में रखना होगा.” रुपये की गिरावट के पीछे व्यापार घाटे का बढ़ना और अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा 2025 में ब्याज दरों में कटौती की संभावना कम होने जैसे कारण भी हैं.
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